मरहूम उस्ताद शायर ग़ुलाम असद अब्बास बड़नगरी

]🧡🤍💚**🌹☝️🌹उज्जैन जिले का बड़नगर भारत की अनेक महान हस्तियों से संबद्ध रहा है। जिनमें स्व० अटल बिहारी वाजपेई और कवि प्रदीप का नाम विशेष है। इसी श्रंखला में बड़नगर की साहित्यिक सांस्कृतिक धार्मिक अस्मिता से और भी हस्तियां जुड़ी है। इन्हीं में भारत के उस्ताद शायर जनाब ग़ुलाम अब्बास बड़नगरी का नाम उल्लेखनीय व अविस्मरणीय है। आज हजरत अली इब्ने तालिब (अ.स.) के विलादत का दिन भी है, करबला वालो पर आपकी शायरी की चर्चा आज के दिन करना अक़िदत के साथ साथ उस्ताद की लेखनी को नमन का दिन भी है।करबला वालो और एहले-बैत के ज़िक्र में उनका ज़िक्र हमेशा होता रहेगा। उनकी शायरी वैसे तो इसी विषय पर केंद्रित थी, परंतु एक बेहतरीन सुखनवर के रूप में भी उनका स्थान किसी स्थापित शायर से कम नहीं था। यहीं वजह है कि उनके चाहनें वालो में सुप्रसिद्ध शायर प्रो. वसीम बरेलवी, मरहूम राहत इंदौरी और मंज़र भोपाली और भारत के अनेक बढ़े शायर शामिल है। उस ज़माने के प्रसिद्ध शायर जनाब नूर साहब इंदौरी और असगर भाई जबलपुरी उनके बहुत करीब थे, बड़नगर उनके निवास पर आते रहते थे।आज चर्चा सिर्फ उस्ताद के उस फन की जिसने उन्हें यादगार बना दिया। अली के समर्पित शिया की अली पर अकीदत की पेशकश के कुछ मोती ही पेशकश करना मुमकिन है।सिवाय ईश्के अली रूह की ग़िज़ा क्या है?यहीं न हो तो दवा क्या और दुआ क्या है।विगत दिनो उनकी बहू और मेरी बहन रेहाना असद एक पारिवारिक मिलन मे, उनके पति स्व. डाक्टर अफसर हुसैन और भाईयो द्वारा उस्ताद के मरणोपरांत 2014 में प्रकाशित उस्ताद के करबला वालो की दास्तान से लबरेज कलामों का गुलदस्ता “अरफानें करबला” भेंट कर गई। जिसे बाकायदा दावत की रज़ा से प्रकाशित किया गया है। उस्ताद हजरत अली अ.स. को समर्पित करते हुए कहते है:१.हर नफ़स में जब आने लगी ये सदा या अली या अली या अली।।आंख ठंडी हुई क़ल्ब रोशन हुआ या अली या या अली या अली।शाहे मरदां पुकारा कोई लाफता शेरे यज़दां कोई मुश्किल कुशा,सब जो मिलकर पुकारे तो ये ग़ुल हुआ या अली या अली या अली।२.लहू से सींचा है जिस चमन को वो रश्के जन्नत बना हुआ है,न बाग़बां ऐसा अब है मुमकिन न फिर से ऐसा चमन हो पैदा।३.मुझ सा मजबूर बैक़स कहां जाएगा,छोड़कर आपका दर अली मुर्तुज़ा।।ग़म का मारा हूं मैं तुम हो मुश्किल कुशा,कब नज़र होगी मुझ पर अली मुर्तुज़ा।।४.मेरे हर नफ़स पर अली अली मेरे लब पे नामे हुसैन है।मेरा दिल तो दिल मेरी रूह भी ए ख़ुशा ग़ुलामे हुसैन है।५.मैं जाऊं तो कहा जाऊं तेरे दर से जुदा होकर। पलट आया हूं तेरी सिम्त ए मौला जाबजा होकर। मैं जब मुश्किल कुशाए ख़ल्क़ की तस्बीह करता हूं,तो मुश्किल दूर ही से लौट जाती है ख़फ़ा होकर। पक्के दीन परस्त और दावत के परचम के हामी बोहरा समाज के दो दुआतो के दौर के साये सरफराज हुए। मरहूम सैयदना मोहम्मद बुरहानुद्दीन साहब को अपनी दुआइयां नज़्म में इल्तिजा के साथ फरमाते है:तू नाइबे हैदर है वल्लाह ग़ज़नफ़र है,क्या वस्फ कोई लिखे बुरहाने हुदा मौला।सूरज है दुआतो का मजमाअ है सफ़ातो का,क्या ताब कोई देखे बुरहाने हुदा मौला।और आख़िर में इस दुआ के साथ जब भी ज़िक्रे हुसैन हो उस्ताद की क़लम से निकली रोशनाई पूरे ख़ल्क को इस तरह आंसुओ से सरोबार कर दे, जैसे सब दरियाओं के मिलने से समंदर पानी से सरोबार हो जाता है। और ख़िराजे अक़िदत के साथ मेरा ये गुलदान उस्ताद की याद में पेश है:जहां जहां जब भी होगा ज़िक्रे हुसैन। जब भी छलकेंगे सारे जहां के नैन।।।याद किए जाएंगे आरिफ तब असद भी,यही होगा हिसाब किताब यही लेन-देन।
लेखक – पंडित मुस्तफ़ा आरिफ