ganga jamuna tahajeeb kee misaal bane praveen khariwal
स्टेट प्रेस क्लब द्वारा 31 मार्च को रोजा इफ्तार पार्टी रखी गई है।
वरिष्ठ पत्रकार दीपक असीम जी की कलम से साल का पहला…साहसी रोजा अफ्तार ऐसे समय में कि जब एलानिया तौर पर धर्मनिरपेक्षता में यकीन रखने वाले सियासी दल भी मुस्लिमों से दूरी बना रहे हैं, स्टेट प्रेस क्लब ने 31 मार्च को रोजा इफ्तार का कार्यक्रम रखकर हिम्मत का काम किया है और इस तरह से यह भी दिखा दिया है कि दूसरे पत्रकार संगठनो से वह किस तरह अलग है।
दोनों की आर्थिक नीतियां एक जैसी हो सकती हैं मगर धर्मनिरपेक्षता के मामले में स्टेट प्रेस क्लब गंगा जमुनी तहजीब का हिमायती है और उसे उन लोगों से डर भी नहीं लगता जो हर मुस्लिम परंपरा के खिलाफ हैं और कहीं स्कूल में भी कोई रोजा इफ्तार रख ले तो हंगामा कर देते हैं।
हालांकि स्कूलो में प्यार और भाईचारा ही सिखाया जाना चाहिए। किताबी ज्ञान के अलावा समाज की जानकारी भी दी जाना चाहिए। रोजा इफ्तार क्या है? इसमें किसी का धर्म परिवर्तन नहीं किया जाता। भरोसा यह है कि अगर आपने रोजा नहीं रखा लेकिन अगर रोजा रखने वाले के साथ रोजा खोलने बैठ गए तो आपको भी उतना ही पुण्य मिलता है जितना रोजा रखने वाले को मिला। पुण्य नहीं भी मिले, तो एक दूसरे के प्रति समझ तो बढ़ती है।
देश में नफरतें पनपने से पहले रमजानों में रोजा इफ्तार के कार्यक्रम आम थे। अगर चुनाव की तारीखों में रमजान की तारीखें मिल जाती थी तो वे दक्षिणपंथी दल भी रोजा इफ्तार करते थे जिनके कार्यकर्ता आज हर गंगा जमुनी परंपरा के खिलाफ बाहें चढ़ा कर खड़े हैं।
भगवा पार्टी के लोगों ने भी कई रोजा अफ्तार कराए हैं। बहुत से पुराने फोटो मिल जाएंगे, जिनमे भगवा पार्टी के नेता टोपी लगाए मुस्लिम भाइयों के साथ थाली पर बैठे हैं।
जिस जगह हिंदू मुस्लिम एकता वाला रोजा इफ्तार होता है वहां इस बात का खास खयाल रखा जाता है की नॉनवेज ना आए। यानी इसकी कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी जाती कि किसी को एतराज हो। किसी ने मना नहीं किया मगर माहौल को देखते हुए धीरे-धीरे रोजा इफ्तार की परंपरा खत्म सी हो गई। सेकुलर होना इस समय गाली है, मुसीबत है, बहस है, विवाद है, मुकदमा है ट्रोलिंग है।
ऐसे समय में स्टेट प्रेस क्लब ने हिम्मत से कहा है कि हम परंपरा को कायम रखेंगे जिसको जो सोचना है सोचे और जो करना है करे। इसके अलावा स्टेट प्रेस क्लब ने जब से अभिनव कला समाज में डेरा डाला है तब से कार्यक्रमों की तादाद भी बढ़ गई है। बहुत कम शुल्क में हॉल दे दिया जाता है और कई से तो बिजली तक के पैसे नहीं लिए जाते। मीडिया वालों के संगठन में जो उदारता और जो हिम्मत होनी चाहिए वह स्टेट प्रेस क्लब ने दिखाई है। शाबासी तो बनती है।
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